भारतीय राजनीति में फंडिंग का पैमाना एक बार फिर सुर्खियों में है। वर्ष 2022-23 के दौरान, भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) को इलेक्टोरल बॉन्ड्स के माध्यम से मिली फंडिंग ने नई ऊंचाइयों को छुआ है। चुनाव आयोग द्वारा जारी नवीनतम आंकड़ों के अनुसार, भाजपा को 1300 करोड़ रुपए की भारी भरकम राशि प्राप्त हुई, जो उसके प्रमुख प्रतिद्वंद्वी, कांग्रेस पार्टी को मिली फंडिंग से लगभग 7 गुना अधिक है।
इलेक्टोरल बॉन्ड्स: एक वित्तीय गेम-चेंजर
इलेक्टोरल बॉन्ड्स की शुरुआत के बाद से ही, यह राजनीतिक दलों के लिए धन जुटाने का एक प्रमुख माध्यम बन गया है। इस वित्तीय उपकरण का उद्देश्य राजनीतिक फंडिंग को अधिक पारदर्शी बनाना है, लेकिन यह देखा जा रहा है कि बड़े दलों को इसका ज्यादा लाभ मिल रहा है। भाजपा को मिली विशाल राशि ने इस बात की पुष्टि की है कि वित्तीय ताकत में उसका दबदबा कायम है।
कांग्रेस पार्टी को इसी अवधि में केवल 171 करोड़ रुपए की फंडिंग मिली, जो न केवल उसके प्रमुख प्रतिस्पर्धी से काफी कम है, बल्कि यह भी दर्शाता है कि वित्तीय संसाधनों के मामले में उसे बड़ी चुनौतियों का सामना है। इस अंतर का प्रभाव चुनावी रणनीति और प्रचार पर भी पड़ सकता है, जिससे राजनीतिक समीकरणों में बदलाव आ सकता है।
राजनीतिक दलों के बीच वित्तीय असमानता
इलेक्टोरल बॉन्ड्स के जरिए मिलने वाली फंडिंग में इतने बड़े अंतर ने राजनीतिक विश्लेषकों और आम जनता के बीच चिंता की लहर दौड़ा दी है। यह वित्तीय असमानता न केवल चुनावी प्रतिस्पर्धा को प्रभावित कर सकती है, बल्कि लोकतंत्र के मूल सिद्धांतों पर भी प्रश्नचिन्ह लगा सकती है। इस असमानता का मुकाबला करने के लिए, विश्लेषकों ने फंडिंग के नियमों में सुधार और अधिक पारदर्शिता की मांग की है।
आगे चलकर, यह महत्वपूर्ण होगा कि इलेक्टोरल बॉन्ड्स और अन्य फंडिंग स्रोतों के माध्यम से राजनीतिक दलों को मिलने वाली धनराशि की निगरानी की जाए, ताकि चुनावी प्रक्रिया में समान अवसर सुनिश्चित किए जा सकें। राजनीतिक दलों के बीच वित्तीय संसाधनों का यह विषम वितरण लोकतांत्रिक संस्थाओं और प्रक्रियाओं पर गहरा प्रभाव डाल सकता है, जिससे आगामी चुनावों में नई चुनौतियाँ और संभावनाएँ उत्पन्न हो सकती हैं।