प्रयागराज (किरण): इलाहाबाद हाई कोर्ट ने कहा है कि कई मामलों में ट्रायल कोर्ट के न्यायाधीश ऐसे आरोपियों को दोषी ठहराते हैं, जिन्हें बरी किया जाना चाहिए। लगता है वह ऐसा केवल हाई कोर्ट की कार्रवाई से बचने के लिए करते हैं। न्यायमूर्ति सिद्धार्थ तथा न्यायमूर्ति सैयद कमर हसन रिजवी की खंडपीठ ने दहेज हत्या मामले में अलीगढ़ की सत्र अदालत के 2010 के फैसले के खिलाफ वीरेंद्र सिंह व अन्य की आपराधिक अपीलों की सुनवाई करते हुए यह टिप्पणी की है।
निचली अदालत ने आरोपियों को दहेज हत्या सहित प्रमुख आरोपों से बरी कर दिया था और उन्हें केवल आपराधिक धमकी के लिए दोषी ठहराया था।अपील पर निर्णय करते हुए खंडपीठ ने ट्रायल कोर्ट के निर्णय से सहमति जताने के साथ ही यह मानते हुए कि भारतीय दंड संहिता की धारा 506 (आपराधिक धमकी- मृत्यु या गंभीर चोट पहुंचाने की धमकी) के तहत अभियुक्त को दोषी ठहराया जाना भी अनुचित था, खंडपीठ ने तत्कालीन सत्र न्यायाधीश को नोटिस जारी करने में जल्दबाजी के लिए हाई कोर्ट के एकल न्यायाधीश की आलोचना की।
कहा, एकल न्यायाधीश ने न केवल सत्र न्यायाधीश को नोटिस जारी किया था, बल्कि यह भी निर्देश दिया था कि न्यायिक अधिकारी के जवाब की प्रतीक्षा किए बिना मामले को मुख्य न्यायाधीश के समक्ष रखा जाए। अदालत ने कहा, उच्च न्यायालय का ऐसा आचरण निचली अदालत में न्यायिक अधिकारियों के डर के लिए जिम्मेदार है। खंडपीठ ने अपने कार्यालय को तत्कालीन सत्र न्यायाधीश की खोज कर निर्णय की एक प्रति उन्हें भेजने का भी निर्देश दिया, ताकि उन्हें पता चले कि उन्होंने मामले का निर्णय करने में कोई त्रुटि (धारा 506 के तहत दोषसिद्धि को छोड़कर) नहीं की है। मामला 2006 का है।
कुमारी भूमिका नामक विवाहिता की आरोपित मनोज से शादी के सात साल के भीतर ही मृत्यु हो गई। ससुराल वालों ने कहा कि मौत घर की छत से गिरकर हुई थी, लेकिन पिता ने आरोप लगाया कि ससुराल वाले दहेज के लिए प्रताड़ित करते थे। इसके बाद दहेज हत्या का मामला दर्ज किया गया।
ट्रायल कोर्ट से आरोपितों को मुख्य आरोप से बरी किए जाने के बाद राज्य ने हाई कोर्ट का दरवाजा खटखटाया। आरोपितों ने भी आइपीसी की धारा 506 के तहत मिली सजा को चुनौती दी।