बिहार की राजनीतिक गलियारों में हाल ही में एक बड़ा खेल खेला गया, जिसे दो दशक से अधिक समय पहले हुई एक घटना की पुनरावृत्ति कहा जा सकता है। इस बार, नीतीश कुमार और भारतीय जनता पार्टी (बीजेपी) ने मिलकर राजनीतिक चतुराई का परिचय देते हुए लालू यादव और उनके पुत्र तेजस्वी यादव की रणनीतियों को नाकाम कर दिया।
खेला का खौफ
बिहार की राजनीति में गत 15 दिनों तक एक अद्भुत खेला देखने को मिला, जिसमें सभी प्रमुख दलों को अपने ही विधायकों पर शक होने लगा। इस दौरान, विधायकों की निगरानी के लिए कई तरह की खुफिया तकनीकें अपनाई गईं। कुछ ने तो भोज के बहाने विधायकों को अपने निवास पर बुलाकर उन्हें वहां रोके रखा। बीजेपी ने भी अपने विधायकों को पटना से दूर ले जाने का निर्णय लिया।
महागठबंधन में विभाजन के पश्चात, तेजस्वी यादव ने घोषणा की थी कि अब खेला होगा। उनका यह बयान राजनीतिक हलकों में काफी चर्चित हुआ, लेकिन नीतीश कुमार और बीजेपी ने मिलकर इस खेला को अपने पक्ष में मोड़ लिया।
इस पूरे घटनाक्रम में सबसे महत्वपूर्ण बात यह रही कि नीतीश और बीजेपी ने न केवल अपने विधायकों को एकजुट रखा, बल्कि विपक्षी खेमे में भी सेंध लगाने का प्रयास किया। इसके लिए उन्होंने विभिन्न राजनीतिक और सामाजिक रणनीतियों का सहारा लिया।
इस खेला के दौरान, विधायकों की निष्ठा और वफादारी की परीक्षा ली गई। जिन विधायकों पर शक की सुई घूम रही थी, उन्हें विशेष रूप से नजरबंद रखा गया। यह सब कुछ इसलिए किया गया ताकि महागठबंधन के विरुद्ध कोई भी अप्रत्याशित कदम उठाने से रोका जा सके।
अंततः, नीतीश कुमार और बीजेपी की इस रणनीति ने लालू यादव और तेजस्वी यादव की योजनाओं को विफल कर दिया। इस प्रकार, बिहार की राजनीति में एक नया अध्याय जोड़ा गया, जिसमें नीतीश और बीजेपी ने अपनी चतुराई और राजनीतिक समझ का परिचय दिया।
इस घटनाक्रम ने एक बार फिर से साबित कर दिया कि राजनीति में कभी-कभी खेला भी जरूरी होता है, लेकिन इस खेला को जीतने के लिए रणनीति, दृढ़ निश्चय और एकजुटता अत्यंत आवश्यक होती है। नीतीश और बीजेपी ने इसे अपनी राजनीतिक कुशलता से साबित कर दिखाया।