देहरादून (नेहा): विषम भौगोलिक परिस्थितियों वाले मध्य हिमालयी राज्य उत्तराखंड में भूमि का विषय जनभावनाओं से जुड़ा रहा है। 71.05 प्रतिशत वन भूभाग होने के कारण इससे स्वाभाविक रूप से विकास कार्य प्रभावित होते हैं। मूलभूत सुविधाओं के अभाव और विकास योजनाओं में वन कानूनों के बाधक बनने को गांवों से पलायन का एक कारण भी माना जा सकता है। यही नहीं, राज्य गठन के बाद से जिस तरह से बड़े पैमाने पर भूमि की खरीद-फरोख्त ने भी जोर पकड़ा, उसका असर कई क्षेत्रों में जनसांख्यिकी बदलाव के रूप में देखने में भी आया है।
असल में जब उत्तराखंड राज्य बना तो तब उत्तर प्रदेश का ही भू-कानून यहां लागू किया। तब भूमि के क्रय-विक्रय पर कोई प्रतिबंध न होने के कारण जमीनों का धंधा आसमान छूने लगा तो भू-कानून को सख्त कानून बनाने की मांग उठी। इसमें समय-समय पर संशोधन हुए, लेकिन अब इन्हें अधिक कड़ा किया गया है। माना जा रहा है कि इस कानून के धरातल पर मूर्त रूप लेने से भूमि की बेतहाशा खरीद-फरोख्त थम सकेगी। उत्तराखंड में समान नागरिक संहिता लागू होने के बाद राज्य में सख्त भू-कानून को धामी सरकार के एक और बड़े निर्णय के रूप में देखा जा रहा है।