नई दिल्ली (हरमीत): राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन (NDA) सरकार के मंत्रिमंडल गठन और विभागों के बंटवारे के बाद अब सबकी निगाहें लोकसभा अध्यक्ष की कुर्सी पर टिक गई है। इस बार भाजपा चुनावों में बहुमत का आंकड़ा पार नहीं कर पाई और 240 सीटों पर ही रह गई। इसका नतीजा यह है कि अब उसे लोकसभा अध्यक्ष पद के चुनाव के लिए अपने सहयोगियों (विशेष रूप से TDP प्रमुख चंद्रबाबू नायडू और JDU प्रमुख नीतीश कुमार) को साथ लाने की जरूरत होगी। वहीं विपक्षी दल भी इस पद पर अपनी निगाहें टिका के बैठा है।
मंत्रिमंडल के संगठन के बाद अब लोकसभा अध्यक्ष का पद भारतीय राजनीति का सबसे महत्वपूर्ण मुद्दा बन गया है। गठबंधन सरकार में यह पद न केवल सत्ता पक्ष के लिए बल्कि सहयोगी दलों के लिए भी अहम होता है, क्योंकि यह सत्ता की नब्ज को संभालने का काम करता है। सत्ता पक्ष और सहयोगी दल, दोनों ही इस पद को अपने हाथों में रखना चाहते हैं। इसका कारण स्पष्ट है: लोकसभा अध्यक्ष के रूप में व्यक्ति संसदीय कार्यवाही को नियंत्रित करता है और इसमें महत्वपूर्ण विधायी निर्णय लिए जाते हैं। यह पद सत्ता पक्ष को अपनी रणनीति को आसानी से आगे बढ़ाने की सुविधा प्रदान करता है।
दूसरी ओर, विपक्षी दल भी इस पद पर अपना प्रतिनिधित्व चाहते हैं ताकि वे सत्ता पक्ष के प्रस्तावों पर चुनौती दे सकें और संसद में संतुलन बनाये रख सकें। अगले संसद सत्र में इस पद के लिए चुनाव होने जा रहा है और इसमें भाग लेने वाले हर दल की नजरें इस पद पर टिकी हुई हैं। किसी भी गठबंधन सरकार में यह पद एक रणनीतिक महत्व रखता है, क्योंकि इससे सरकार की स्थिरता और नीतियों की दिशा तय होती है। इस तरह, लोकसभा अध्यक्ष का पद सत्ता के संतुलन का केंद्र बन जाता है।